एक जुलूस के साथ – साथ - 1 Neela Prasad द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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एक जुलूस के साथ – साथ - 1

एक जुलूस के साथ – साथ

नीला प्रसाद

(1)

होटल के डाइनिंग हॉल में दो कोनों पर खड़े हमदोनों की नजरें अनायास मिल गईं। फिर उन नजरों के मिलन से बने पुल पर तेजी से बहती- तैरती, पिघली हुई यादें आने- जाने लगीं। वे बहुत तकलीफदेह यादें थीं- व्यवस्थित, चमकदार, चिकने जीवन की परतों में छेद कर उन्हें अव्यवस्थित, बदरंग, खुरदुरा, बदशक्ल बना देने वाली यादें... यादें, जिन्हें अतीत के गैरफैशनेबल कपड़ों की तरह हमने वर्तमान के फैशनेबल कपड़ों की तमाम तहों के नीचे दबा दिया था, अब असुविधा उत्पन्न करती हुई, जादू से सब उलट- पलट कर, सतह पर आ मुझे शर्मिंदा कर रही थीं। वे यादें मुझे ग्लानि में डुबो दें, उससे पहले ही उनसे भाग निकलना जरूरी था। मैंने कोशिश करके नजरें घुमा लीं और क्षण भर को वह पुल टूट गया, पर अपने अपराधों, अपनी ग्लानि से कब तक नजरें चुरा पाती ! नजरें फिर मिलीं और अबकी मिली रह गईं। शायद उसने भी मुझे पहचान लिया था इसीलिए अनायास हमारे कदम एक-दूसरे की ओर बढ़ने लगे। वह अपेक्षाकृत स्थूलकाय हो आई थी और उसके बालों में सफेदी झलकने लगी थी। मैं खुश हुई कि मैंने खुद को संभाले रखा है और मेरी काया या मेरे बाल मेरी उम्र की चुगली नहीं करते! मैं धीरे- धीरे कदम बढ़ा रही थी, पर मेरे अंदर ताजी- ताजी युवा हुई एक लड़की जैसे दौड़ लगा रही थी। मैंने उस लड़की को भागते हुए पकड़ लिया।

तब हम इंटरमीडिएट में पढ़ते थे - रूममेट थे। पहली बार घर छोड़ा था और घर की याद में, माँ की चाह और यादों से त्रस्त, साथ - साथ रोते थे। वह हॉस्टल हम जैसी लड़कियों से ही भरा पड़ा था जो मूलतः उन कस्बों से उठकर कॉलेज की पढ़ाई के लिए आई थीं, जिन कस्बों में कोई वीमेंस कॉलेज नहीं था। इस कॉलेज और इसके हॉस्टलों के अनुशासन की इतनी धाक थी कि आसपास के कस्बों के अभिभावक निश्चिंत होकर अपनी बेटी यहां छोड़ सकते थे - खासकर हॉस्टल नं एक में, जहां जी. वत्सला वार्डन और इंचार्ज थी। मैं पहले दिन उनके सामने पेश हुई तो उन्होंने हंसकर कहा- यह तो ठेठ पढ़ाकू है। इसे तीन नं में भेज देती हूं और सुजाता को यहां रख लेती हूं। मैं सुजाता को छोड़ना नहीं चाहती थी। दो घंटे के परिचय में ही वह मुझे खासी अच्छी लगने लगी थी। फैशनेबल कपड़ों में वह कितनी मॉर्डर्न दिख रही थी! अंग्रेजी बोल रही थी, फिर भी गंवार से दिखने वाले कपड़ों में चोटी बनाए, शुद्ध हिंदी भर बोल पा रही मुझ से उसने अच्छी तरह बात की थी। मैट्रिक की परीक्षा में मुझे मिले ऊँचे प्रतिशत से प्रभावित दीख रही थी। अब पढ़ाई तो मैं संभाल लेती पर मुझे एक ऐसी सहेली चाहिए थी जो मुझे कपड़ों, फैशन और बालों के लेटेस्ट कट की जानकारी देती रहे- बाजार साथ ले जाकर परफ्यूम से लेकर बढ़िया ब्रा, पैंटी तक खरीदवाती रहे। उतने पैसों का जुगाड़ कैसे होगा - यह सोचना मुझे उसे क्षण उतना महत्वपूर्ण नहीं लग रहा था जितना किसी तरह सुजाता का साथ पा जाना... बल्कि मेरा दिल धड़क रहा था कि कहीं सुजाता ने भी मैम की हां- में- हां मिला दी तो जाने किस रुममेट से मेरा पाला पड़े जो मुझसे जाने कैसा व्यवहार करे! कहीं मेरे पिछड़ेपन का हर वक्त मजाक न बनाती रहे!! वैसे तो सुबह घर से निकलते वक्त मैंने अपना सबसे अच्छा सूट पहना था पर कॉलेज में घुसते ही मुझे अपने पिछड़ेपन का अहसास हो गया था। सुजाता के कपड़े देखकर मैं बार- बार बक्स में रखे अपने दूसरे कपड़े याद कर- करके, हीन भावना से ग्रस्त हो रही थी.. ‘मुझे इसी के साथ रहने दीजिए न’... सूखे गले से, मैं जी. वी मैम से उस दिन बस इतना ही कह पाई थी। सुजाता के पिता, जो पास ही खड़े थे, मैम से हंसकर बोले - अब यदि इस सीधी- सादी लड़की को मेरी बिटिया इतनी ही पसंद आ गई है तो रहने दीजिए दोनों को साथ- साथ! कोई प्रॉब्लम हुई तो बाद में हटा दीजिएगा। मैम मान गईं पर मुझे समझाती हुई बोलीं – ‘तुम साइंस ले रही हो तो तुम्हें ज्यादा पढ़ाई करनी पड़ेगी। सुजाता आर्ट्स में है तो इसकी पढ़ाई जल्दी खत्म हो जाएगी। तुम्हें दिक्कत हो सकती है, यह समझ लो! जब तुम पढ़ना चाहोगी, तब यह तुम्हें बागीचे में घूमने चलने को कहेगी...” सब हंसने लगे- मैम, मैं, सुजाता़.... हम दोनों के पिता!...हमें कमरे में छोड़कर जाने के पहले उनदोनों ने आपस में परिचय किया। वे हमारे घर का फोन नंबर मांग रहे थे, पर मेरे घर फोन था ही कहां! हम दोनों का घर शहर से मात्र चार घंटे की दूरी पर था, पर धुर विपरीत दिशाओं में!

जी.वी. मैम- उन्हें हॉस्टल में सब मजाक में जीमैम कहते थे- एकबार फिर से हमारे कमरे में एक सीनियर को लेकर आईं, जिसने हमें हॉस्टल के कायदे- कानून समझाए। अगले दिन से पढ़ाई शुरू हो गई।

‘हमारे पास धन और यश नहीं है। इन्हें हासिल करने की कूवत भी नहीं है । पर सपने हैं कि तुम अच्छी शिक्षा हासिल कर कहीं पहुंच जाओ।..अपना सारा ध्यान पढ़ाई पर रखना और जीवन में अनुशासन बनाए रखना’-- हॉस्टल जाना तय हो जाने पर माँ, पिताजी, दादी, बड़े भइया- सबकी बातों का सार यही था। मैं पढ़ने में अच्छी थी तो पिताजी मुझे डॉक्टर बनाना चाहते थे। मैं नाक- नक्श से उतनी अच्छी नहीं थी तो माँ मुझे जल्द ब्याह देना चाहती थीं। दादी ने बीच का रास्ता सुझाया था- डॉक्टरी की पढ़ाई में नाम लिखा ले, फिर जल्दी-से-जल्दी ब्याह दो। सोलह से बाईस की उम्रर की हर लड़की - अगर वह बीमार नहीं हो- अच्छी ही लगती है। यह उम्रर निकलनी नहीं चाहिए। पढ़ाई में औसत बड़े भइया को शहर से ग्रैजुएट होते ही, बिजली के सामानों की दुकान खुलवा दी गई थी। पढ़ाई में कमजोर छोटे भइया को खेती का काम संभालने गांव भेजने की तैयारी थी, तो वे मुंह फुलाए घूम रहे थे और मुझे बाहर भेज कर पढ़ाया जाय, इसका घोर विरोध कर रहे थे।

सुजाता भी मेरी तरह अकेली बेटी थी पर उसका छोटा भाई यह सुनकर इतराया हुआ था कि दीदी पढ़ने को हॉस्टल भेजी जा रही है। वह साधनसंपन्न घर में काफी इंतजार के बाद पैदा हुई सुंदर, सलोनी, लाडली बेटी थी।

हॉस्टल आने के एक-डेढ़ महीने बाद की बात होगी। तब तक हमारे मन में कस्बे और शहर के चकाचौंध भरे जीवन का अंतर काफी कुछ स्पष्ट हो चुका था। मैं दो बार बाजार हो आई थी- भले ही मैंने अपने लिए क्लिप, पेन, पेपर के सिवा और कुछ खरीदा नहीं था! रविवार की एक अलसाई दोपहरी को जी.वी हमारे कमरे में चली आईं। तब वहां टी.वी. का पदार्पण नहीं हुआ था। ‘तुम दोनों को लेने लोकल गार्जियन नहीं आते?’ उन्होंने चलते ढंग से पूछा। हम दोनों ने ‘ना’ में सिर हिला दिया। ‘अच्छा, तो क्या तुमदोनों शाम को भी यूं ही हॉस्टल में पड़ी रहोगी? चलो, मैं तुम्हें घुमा लाती हूं। सड़क के उस पार ही एक बढ़िया- सा होटल है। मेरे साथ कुछ और लड़कियां भी चल रही हैं। सब को कोल्ड ड्रिंक पिला लाती हूं।’ हम खुशी- खुशी तैयार हो गए। लगभग एक दर्जन लड़कियां मैम के साथ चलीं। उन में से कुछ ने उस दिन पहली बार लिपस्टिक लगाई थी तो किसी ने पहली बार पैरेलल पहना था। किसी के लिए हाई हील में चलने का नया-नया अनुभव था तो मुझे कटे बालों में बाहर निकलने का! वह साधारण- सा होटल, शहर में नई आई मुझ जैसी लड़कियों को बहुत सुंदर लगा। हल्की धीमी रोशनी में, छोटी-छोटी गोल मेजों और कई झाड़फानूसों से सजा होटल, बहुत रहस्यमय सा लग रहा था - जैसे किसी फिल्म का हिस्सा हो। हर मेज के साथ चार कुर्सियां लगी थीं, पर जी.वी. हमें दो-दो कर, वहां बिठाती गई। बेयरे जैसे उन्हें पहचानते थे- झुककर अदब से पेश आ रहे थे। मुझे अफसोस हुआ कि मुझे सुजाता का साथ नहीं मिला। भले ही मेरे साथ कविता बैठी थी, मैं लगातार सुजाता पर नजरें टिकाए थी। बेयरे ने हमसे पूछ-पूछ कर हमारे पसंद की कोल्ड ड्रिंक हमें दी। कांच का वह लंबा- सा गिलास मुझे शानदार लगा था।

हमने चुस्कियां लेनी शुरु ही की थीं कि जी.वी. उठीं और टहलती हुई दरवाजे से बाहर चली गईं। मुझे उनके जाते ही अकेला और डरा-डरा सा लगने लगा। तभी जाने कहां से एकसाथ कई पुरुष हॉल में घुस आए और दो तो ऐन हमारे सामने आकर बैठ गए। ‘हम सब वीमेंस कालेज की हैं’, मैंने घबराहट में कहा। ‘हां बेटे, मालूम है। आप सब जी.वी. के साथ हैं। घबराइए मत। मैं इंश्योरेंस कंपनी का मैनेजर हूं और ये स्टील इंडस्ट्री से हैं। हम यहां टूर पर आए हैं। आपका शहर बहुत सुंदर है। आपको दिखाने के लिए हमारे पास कुछ है। चलिए हमारे साथ हमारे कमरे में।’ उस व्यक्ति ने भारी - भरकम आवाज में कहा और उठ खड़ा हुआ। ‘हमें वापस हॉस्टल जाना है। मैम खोज रही होंगी।’ मैंने घबराहट में पसीना -पसीना होते हुए हकलाहट के साथ कहा। वे हंसने लगे। ‘आपकी मैम ऊपर ही तो हैं।उन्हें मालूम है कि आप हमारे साथ आ रही हैं। चलकर पूछ लीजिए।’ ‘पर हमें तो कुछ नहीं देखना।’ मेरे साथ बैठी कविता बोली। ‘ठीक है। ऊपर चलकर अपनी मैम से बोल दीजिए और उनके साथ चली जाइए। आप सब बोर हो रही थीं इसीलिए आपकी मैम ने हमें आपके पास भेजा है।’ हम उनके पीछे- पीछे सीढ़ियां चढ़ गए और उनके इशारों पर कतार से बने कमरों में से एक में मैं, और एक में कविता, दाखिल हो गए।

जब हम रोते हुए बदहवास से बाहर निकले तो हम, हम नहीं रहे थे।

वापसी में जी.वी. हमारे साथ थीं,पर सारी-की-सारी लड़कियां, उनसे और एक-दूसरे से नजरें चुराती हुई चल रही थीं। सबके चेहरे उतरे हुए थे। आंखों में आंसू भरे मैं और सुजाता, अपने- अपने बिस्तर पर बैठ गए। खाना हमने नहीं खाया। बाकी लड़कियों को, जो अपने-अपने लोकल गार्जियन के घर होकर आई थीं, हम अपना चेहरा कैसे दिखाते!! लाइट ऑफ करने का समय एक बड़ी राहत लेकर आया।

... नींद नहीं आ रही थी। न मुझे, न उसे। हतप्रभ, सुन्न, सर के चक्रवात से छुटकारा, न उसे था, न मुझे।.. बात करने की शुरुआत करने की हिम्मत न उसे हो रही थी, न मुझे। पर घर और मां से दूर, बस आंसुओं के साथ रात गुजारने का खयाल, शायद न उसे भा रहा था, न मुझे।.... वह कुछ सोच रही थी, मैं भी। वह अब भी लगातार रो रही थी, मैं रोकर चुप हो गई थी। वह बिस्तर पर जड़ पड़ी थी... मैं बिस्तर पर बैठी थी। मेरे पांव कांप रहे थे, हाथ बेजान थे।‘ मैं तुम्हारे पास आ जाऊँ?’, मैंने कमजोर आवाज में लगभग फुसफुसाकर पूछा। उसने बिना कुछ कहे मेरे लिए जगह बना दी। दो तन्वंगी लड़कियां सिंगल बेड में आराम से समा गईं।.. खामोशी का दौर खत्म हुआ। ‘तुम्हारे साथ कुछ हो गया है क्या?’ सुजाता ने जैसे मेरे कानों में कहा। ‘नहीं। पर वह जबर्दस्ती मेरा कुरता उतार, मेरी छातियों से खेलता रहा। मैंने उसके कहने पर भी पैरेलल नहीं उतारा। मैं सिकुड़ती गई तो वह गुस्साकर बोला- तुम तो लकड़ी की बनी लगती हो। जाओ, भागो यहां से। तुम्हारी मैम से मैं निबट लूंगा।’ बाहर आकर सीढ़ियों के पास खड़ी थी तो जी.वी. मुस्कुराती हुई आईं और बोली, ‘अरे! रो क्यों रही हो? वह तुम्हें बहुत आगे ले जायेगा। हो सकता है शादी भी कर ले। वह थोड़ा उम्रदराज है, पर शादीशुदा थोड़े है! धनी है वह- तुम्हारी किस्मत पलट जायेगी,.. तुम्हारे साथ क्या हुआ?’

मन के दरवाजे खुलने लगे। सुजाता टुकड़ों -टुकड़ों में बताने लगी, जिससे यह समझ में आया कि धमकाने की खातिर उसने झूठ कह दिया था कि उसके पिता और भावी पति, दोनों पुलिस अफसर हैं और उसे छुआ भी गया तो... पर वह व्यक्ति बोला कि उसे जी.वी सब बता चुकी है कि वह कौन है। वैसे भी वह विजिलेंस विभाग का है और इस नाते पुलिस का बाप है। वह नहीं मानी और दोनों एक -दूसरे को धमकाते रहे। वह बड़ी मुश्किल से कमरे से निकल पाई। अब कल कौन- सा क्लास बंक करके कैंपस से बाहर घर फोन करने को निकलें , यह तय नहीं कर पा रही। ... मेन गेट का गार्ड हॉस्टल की सभी लड़कियों को पहचानता था और बाहर निकलते समय प्रिंसिपल मैम को बता देने की धमकी देता था।... मैं आसमान से गिरी। ‘तुम घर पर सब बताओगी? वे तुम्हारा भरोसा करेंगे??’ ‘क्यों नहीं, मां से बात करूंगी। मेरा मन तभी शांत होगा।’ वह गर्व से बोली। ‘मेरे घर तो भनक लगते ही पढ़ाई छुड़वाकर वापस ले जायेंगे। वहां बदनामी फैलेगी, सो अलग। घर पर सब आपस में ही लड़ने लगेंगे और एक दूसरे को दोष देंगे... मैं पढ़ाई जारी रखना चाहती हूं, इसीलिए घर पर बताने की सोच भी नहीं सकती!’ मैंने साफ बता दिया। सुजाता चुप रही। हमने अपनी ऊंगलियां आपस में फंसा लीं और सोने की कोशिश करने लगे।

सुजाता ने मां को तुरंत बुला भेजा। पर जाने क्या बात थी कि मां तुरंत नहीं आ पाईं और उसके पहले ही दूसरा रविवार आ पहुंचा। शाम होते ही झाड़ू लगाने वाली कमली कह गई ‘उन्होंने तैयार हो जाने को कहा है।’ हमारे पसीने छूट गए। सर में चक्कर आने लगा। सुजाता पेट दर्द का बहाना बनाकर बिस्तर से जा लगी। ‘तुम ज्यादा स्मार्ट तो नहीं बन रही?’, जी.वी कमरे में आकर बोलीं। ‘दर्द है। मधुमिता को मेरे साथ रहने दीजिए, प्लीज।’ सुजाता ने ठंढे स्वर में दुहरा दिया। वे गईं और उलटे पांवों दर्द की गोली के साथ लौट आईं। ‘लो, मेरे सामने निगलो।’ वे दवा खिलाकर ही निकलीं। उनके जाते ही सुजाता उठ बैठी और जीभ के अंदर दबाई गोली थूक दी। ‘यह नींद की गोली है मधु, मैं पहचानती हूं।’ वह घबराहट के मारे रोने लगी। मैं भी। उसके अगले रविवार मेरी तबियत सचमुच बिगड़ गई। दस्त और उलटियां होने लगीं। डाक्टर से मुझे दिखलवाकर, सुजाता और लतादी को मेरे पास बिठाकर, जी.वी चली गई। ऐन नींद की देहरी पर पहुंचकर मैंने जाना कि सुजाता की मां आई हैं। मैं चाहकर भी जागी न रह पाई।

लतादी कॉलेज के अंतिम साल में थीं। इंगलिश आनर्स कर रही थीं- अंग्रेजी में कविताएं भी लिखती थीं। मितभाषी थीं, फिर भी कालेज की सारी लड़कियां जाने क्यों उन्हें घेरे रहती थीं। एकदिन जब क्लास खत्म होने के बाद हम कमरे में बैठे थे, तो उन्होंने हम दोनों को बुला भेजा। वे हमसे मुस्कुराकर मिलीं। ‘तो तुमदोनों भी जी.वी की शिकार हो गई?’, उन्होंने हमसे पूछा तो मारे शर्म और अपराध बोध के हम कुछ बोल नहीं पाए। ‘अगली बार तुम्हें होटल चलने को कहे या रात को अपने कमरे में बुलाए तो मुझे इशारा कर देना। मेरा कमरा जी.वी के कमरे के दो पहले है।’ ‘हमदोनों किसी तरह बच निकले। हमें कुछ नहीं हुआ’, मुझे यह बताना बहुत जरूरी लगा। ‘ग्रेट। पर सारी लड़कियां बच नहीं पाईं।’ वे बस इतना ही बोलीं।

क्रमश...